यह निरन्तर लपटें उगलती
अग्निगर्भा रेत
अब क्या माँगती है-
पेड़-पौधे, जीव
सब कुछ निगल कर भी
अभी तक अतृप्त
बलि-वेदी !
मैं ही बचा हूँ केवल
लो, मैं प्रस्तुत हूँ
मेरी आहूति लो
मुझे भख लो, माँ !
शायद अपने ही बेटे की बलि पा
पसीजो तुम
मुझ में अँकुराओ
फिर से हरी हो आओ !
(1983)