कवितायें मुझे मिलती हैं
चौराहों पर ,तिराहों पर
और अक्सर
दोराहों पर
संकरी पगडंडियों पर कवितायें
निकलती हैं
रगड़ते हुए मेरे कंधे से कन्धा
और डगमगा देती हैं मेरे पैर
इक्क्का दुक्का दिख ही जाती है
तहखानों में अंधेरो को दबोचे
उजालों से नहाए
महानगरों की पोश कोलोनियों में
पिछले दिनों गुजरते हुए गाँव के
साप्ताहिक बाज़ार में
उसने आकर मुझसे मिलाया अपना हाथ
और फिर झटके से गुज़र गयी
मुस्कुराते हुए ,दबा कर अपनी बायीं आँख
मेरे बेहद अकेले और उदास दिनों में
वो थाम कर घंटो तक
बैठती हैं मेरा हाथ
थपथपाती है मेरा कन्धा
अपनी आँखों में
सब कुछ ठीक हो जाने की आश्वस्ति लिए
सच तो ये है कि
कविताये मुझे घेर लेती हैं
पकड़ लेती हैं मेरा गिरेबान
सटाक ,सटाक पड़ती हैं मेरी पीठ पर
और छोड़ जाती हैं
गहरे नीले निशान .....
मेरी पीठ पर पड़े गहरे नीले निशान ही तो हैं मेरी कवितायें