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मेरी कविता (1) / मदन गोपाल लढ़ा


टूटता है कुछ मेरे भीतर
भावनाओं के शिलाखण्डों की
बेतरतीब बिखरी किरचें
चुभने लगती है कलेजे में
आँखों की मार्फत
पिघल उठता हूँ मैं।
शब्दों के सहारे
मैं जब-जब
उसे जोडऩे को खटता हूँ
तुम मुझे कवि और
अंतर से बिछुड़ते लावे को
कविता कहते हो।