राग पीलू, कहरवा 4.9.1974
मेरी कौन सुनै गिरिधारी!
तुम बिनु दीनानाथ! जगत में मेरो को उपकारी॥
तुम ही सों है लगन हिये की, चाहों मिलन मुरारी!
तुम बिनु कौन मिलावै तुमसों, करहु कृपा बनवारी॥1॥
जनम-जनम की साध यही है, पाऊँ प्रीति तिहारी।
और न चहों कबहुँ कछु प्यारे! यही पैज उर धारी॥2॥
टेरत हूँ, हेरत हूँ पथ हूँ, तदपि न सुनहु हमारी।
कहा करों कोउ पन्थ न सूझत, हेरि-हेरि हौं हारी॥3॥
या दुखिया के तुमहि सहारे, तदपि न कबहुँ निहारी।
तरसावन में ही सुख मानहु तो जनि मिलहु मुरारी॥4॥
तरसि-तरसि ही तजिहों यह तनु, मन नहि करिहों भारी।
जो मिलिहो तो हूँ लुकि रहिहों, रखिहों तुमहिं सुखारी॥5॥