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मेरी बेटी / मनोज चौहान

{{KKRachna | रचनाकार=

 
 मेरी बेटी अब हो गई है,
चार साल की,
स्कूल भी जाने लगी है वह,
करने लगी है बातें ऐसी,
कि जैसे सबकुछ पता है उसे।

कभी मेरे बालों में,
करने लगती है कंघी,
और फिर हेयर बैण्ड उतार कर,
अपने बालों से,
पहना देती है मुझे,
हंसती है फिर खिलखिलाकर,
और कहती है कि देखो,
पापा लड.की बन गए।

कभी-कभार गुस्सा होकर,
डांटने लग पड़ती है मुझे वह,
फिर मुंह बनाकर मेरी ही नकल,
उतारने लग जाती है वह,
मेरे उदास होने पर भी,
अक्सर हंसाने लगी है वह ।


रूठ बैठती है कभी,
तो चली जाती है,
दुसरे कमरे में,
बैठ जाती है सिर नीचा करके,
फिर बीच - 2 में सिर उठाकर,
देखती है कि,
क्या आया है कोई,
उसे मनाने के लिए।

उसकी ये सब हरकतें,
लुभा लेती हैं दिल को,
दिनभर की थकान,
और दुनियादारी का बोझ,
सबकुछ जैसे भूल जाता हूँ ।

एक रोज उसकी,
किसी गलती पर,
थप्पड. लगा दिया मैंने,
सुनकर उसका रूदन,
विचलित हुआ था बहुत ।

फिर सोचा कि,
परवरिश के नाम पर,
क्या ईतनी कठोरता,
उचित है.........?
महज चार साल की,
ही तो है वह।

पश्चाताप हुआ मुझे,
फिर मेरी भूल का,
मैंने बुलाया उसे अपने पास,
और कहा बेटा सॉरी,
कोई बात नहीं पापा,
अब नहीं करूंगी,
फिर ऐसी गलती l

उसके चेहरे के वो,
निर्दोष भाव,
अहसास दिला गए मुझे,
कि चाहता है वह बालमन भी,
धीरे- 2,
समझदार और परिपक्व होना।