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मेरी भी सुनो सिद्धार्थ / संजय तिवारी

मैंने तुम्हें तब कुछ भी नहीं सुनाया
खुद को सम्हालने का योग बनाया
पहले तुम्हारे रक्त को संभाला
फिर प्रश्नो पर दृष्टि डाला
कयोकि जब तुम खोज रहे थे
जीवन मे दुख का कारण
पाना चाहते थे कुछ निवारण
तब मैं जूझ रही थी
रक्ताभ नन्हे राहुल के
स्वप्निल मासूम सवालों से
उसके वे सवाल चुभते थे
पिता से जुड़े प्रश्न तार तार करते थे
ह्रदय को
रोकने को हो आता था स्पंदन
कैसे सुनाऊ वह करूँ क्रंदन?
सुना है? तुम मृत्यु से डरे थे
रोग से भी
और
बहुत डर गए थे वे की सीमा से
देह की नश्वरता ने बहुत दुखाया था
 तुम्हें इस जगत हर क्रीड़ा से
किसी ने बहुत डराया था।

क्या सच में तुम जान सके
जीवन की व्यथा और
मृत्यु का सच?
दुख जीवन होता है या कि
वह जीवन
जो साथी के पलायन के बाद बचता है?
खुद के वृद्ध होने की कल्पना ने तुम्हें डरा दिया?
देह की जर्जर होने की सचाई ने तुम्हें रुला दिया?
और
दहकते यौवन की देहरी पर खड़ी
युवा पति की ही खाट पर
बेसुध सी पड़ी
तुम्हारे ही पुत्र को पिला रही थी मैं
थकी थी? सो गयी
पर उसे ही सुला रही थी मैं।
क्या अपराध था मेरा?
क्या अधिकार था मेरा?
क्या क्या छोड़ गए तुम?
जानते हो?
सभी को पहचानते हो?
कभी कुछ कहा तुम्हारे दर्शन ने
मेरे पिघल चुके यौवन की कथा?
मेरे द्वारा परोसी गयी थाल के
ठुकरा देने की व्यथा?
सुजाता से मीठी खीर बनाती थी मैं
आम्रपाली से अच्छी देह सजती थी मैं
उसके लिए जगह तो थी
तुम्हारे विहार में
नहीं थी तो केवल
पत्नी और पुत्र के लिए
यह कैसा दर्शन बनाया तुमने
जिसमे
एक पत्नी और पुत्र समा ही नहीं सकते
धिक् आती है तुम्हारी गाथा कहते
न मेरा दुःख जान सके
न राहुल की व्यथा मान सके
क्या दिया
क्या किया
क्या जिया?
सिद्धार्थ,
सुनती हूँ
दस दिशाओ में
पसर गया है गया तुम्हारा दर्शन
बौद्धिक व आध्यात्मिक साम्राज्य
पर मेरा विस्तार तो सिर्फ तुम थे
मेरे हर विस्तार का आधार
सिर्फ तुम थे
गौतम या कि तथागत या कि
सिद्धार्थ से बुद्ध होने की
तुम्हारी इस अबूझ पलायन यात्रा में
धम्म की तुम्हारी पावन प्रथा में
कहा हूँ मैं, राहुल की माता
यशोधरा?