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मेरी माँ / मधु गजाधर

माँ,
मेरी माँ,
अँधेरे का वो पेड़,
जिसे कभी
दुनियादारी की हवा,,
बाहरी लोगों की धूप,
इधर उधर की बातों का जल,
 नहीं मिला,
उसे आत्म विशवास की
उपजाऊ
मिटटी भी नहीं मिली,
फिर भी
कैसे
माँ...
बिना मिटटी,
बिना धूप ,
बिना जल,
बिना हवा
के तू
पनप गयी ?
धीरे धीरे
एक पेड़ बन गयी .
एक घना पेड़
जिस की गहन छाया में
हमने सीखा
आत्म निर्भर,होना,
दूसरों के लिए सोचना,
मानुष होने का धर्म समझना
जीवन का मर्म समझना
जो मिल जाए बस उसे ही
अपना समझना
जितना मिले
बस उस में ही
संतुष्टि रखना
और इसे
ईश्वर की अनुकम्पा समझना
माँ
आज विज्ञानं की कक्षा में
सीखा हमने
बीज से वृक्ष बनने के लिए
अति आवश्यक है
उपजाऊ मिटटी,धूप,हवा,पानी
पर माँ...
तू इस सब के बिना
कैसे बन पायी एक पेड़?
अँधेरे का पेड़ माँ
जो उजाले के फल देता है
ममता की छाया
प्रेम की सुगंध,
और
धर्म संस्कृति को
सहेजती
दूर तक फैली तेरी जड़
माँ
तू
एक चमत्कार है इस धरती पर
माँ तू एक अवतार है मेरे जीवन में,
माँ तू
हर रिश्ते को
जोड़े रखने का व्यवहार है
लेकिन माँ
मैं तेरी बेटी,
मैं सब कुछ पाकर भी,
तुझ से
बहुत आगे जाकर भी
कभी
तुझ सी माँ
नहीं बन पायी
मैं
रौशनी कि चकाचौंध में
गुम हुई एक ऐसी माँ हूँ
जो अपनी संतान के लिए
तेरे जैसा
अँधेरे का पेड़ नहीं बन पायी