आज अचानक जब कहा
मेरी माँ ने मुझसे
लिखो ना मेरे ऊपर भी कोई कविता
और फिर ध्यान से देखा मैंने माँ को आज कई दिनों बाद ।
अरे! चौंक सी गयी मैं
माँ कब बूढ़ी हो गयी ?
सौंदर्य से दमकता उनका
वो चेहरा जाने कब ढँक गया झुर्रियों से
माँ के सुंदर लम्बे काले बाल
कब हो गए सफेद
कब माँ के मजबूत कंधे
झुक से गए समय की बोझ से।
अचंभित हूँ मैं ...
ढूँढती रही मैं नदियों, पहाड़ों,
बगीचों में कविता और मेरी माँ
मेरे ही आँखों के सामने होते रही बूढ़ी।
भागती रही भावों की खोज में
खोजती रही संवेदनाएँ
पर देख नहीं पाई जब
प्रकृति खींच रही थी
माँ के जिस्म पर अनेकों रेखाएं ..
सिकुड़ती जा रही थी माँ
तन से और मन से
और मैं ढूंढ रही थी प्रकृति में
अपनी लेखनी के लिए शब्द ।
जब बूढी आँखे और थरथराते हाथों से
जाने कितनी आशीषें लुटा रही थी माँ ।
तब मैं दूसरों के मनोभावों में ढूंढ रही थी कविता ।
और इसी बीच जाने कब मेरे और मेरी कविता के बीच बूढी हो गयी माँ ।