बूढ़ी हो गई हैं मेरे साथ
मेरी ये किताबें भी
और जो नई-नई आईं
जैसे किसी नवाब के हरम में
बीबीयाँ और शोख चुलबुली बाँदियाँ
फीकी पड़ गईं धीरे-धीरे वे भी
जैसे-जैसे रातें ढलीं
और दिन बीतते गए
जहाँ-जहाँ जाता हूँ मैं
मेरे साथ जाती हैं मेरी ये किताबें
वफ़ा का रिश्ता है मेरा इनका
पता नहीं मेरे बुढ़ापे को ये ढो रही हैं
या मैं ढो रहा हूँ इनका बुढ़ापा
इनमें ज़्यादातर तो ऐसी हैं
जिनके साथ कुछ ही दिन या घंटे
मैंने बिताए होंगे
लेकिन कुछ क्या बहुत सारी
तो ऐसी भी हैं
जिनके पन्ने-पन्ने रंग डाले हैं मैंने
खूबसूरत हरफ़ों-निशानों से
जिनके भीतरी मुखपृष्ठ पर
ऊपरी कोने में करीने से
अंकित हैं मेरे हस्ताक्षर
जो बताते हैं ये मेरी हैं
पूरा हक़ है इन पर मेरा
इन्हें पढ़ सकता हूँ मैं
शुरू से आख़िर तक
कई-कई बार
इनके हर पन्ने को पलटते हुए
लाल-लाल लकीरों से
जैसे इनकी मांग भरते
या बस एक बार
उलट-पलट कर
सजा दे सकता हूँ
इनको इनकी आलमारी में
जहाँ ये सजी रहती हैं
इस इंतज़ार में कि फिर कभी
मैं ज़रूर इनके साथ
बिताऊंगा कुछ वक्त
जब घड़ी की सुइयाँ
ठिठक जाएंगी
कुछ लमहों के लिए
आंखें मुंदने लगेंगी मेरी बार-बार
नींद के मद-भरे झोंकों से
इनमें से किसी एक दुबली-पतली
तीखे नाक-नक्श वाली हसीना को
प्यार से अपने सीने पर सुलाए
इस उमीद में कि फिर वह मिलेगी
किसी रुपहले सपने में मुझे -
या उनमें से कोई तो?