अनचाहे, अनभाये जीवों की कुदृष्टि से बची रहो तुम
मेरी साँझ ! तुम्हारे माथे श्याम मेघ का रचूँ डिठौना
जब से समझा है दुनिया को
इन्हें-उन्हें परखा-देखा है
घटाटोप बादल लिपटें हैं
मिली न विधुत की रेखा है
क्षणिक प्रकाश मिला न, स्वार्थ की चारों ओर तमिस्रा छायी
बार-बार मितली आयी है, बार-बार आयी उबकायी
लाचारी है दिनभर पशु-सा कंधों पर कुभार है ढोना
होते शाम टूटता है दूर्वादल पर मन का मृगछौना
मेरी साँझ ! तुम्हारे माथे श्याम मेघ का रचूँ डिठौना
ये विकलांग विचारों वाले
आधे भरे, अधूरे प्याले
संध्ये ! बोलो केसे कोई
इनसे अपनी प्यास बुझाले
मधु दिखता है किन्तु, हलाहल
से भी वह तीखा होता है
पीने की इस लाचारी में-
पूर्ण पुरूष हँसता-रोता है,
कैसे झेलूँ ये अभाग्य के क्षण ओ मेरी सान्धय सुन्दरी !
चुभते हैं कांटे, गुलाब का फिर भी पड़ता हार पिरोना
मेरी साँझ ! तुम्हारे माथे श्याम मेघ का रचूँ डिठौना
हारा, थका बदन, टूटा-टूटा-सा
घायल मन क्या चाहे
प्यारे भरे दो बोल, सहज मन
मधुरालिंगन देती बाँहें
बन्द किताब खुले, अक्षर का-
मर्म लहर-सा थिरके-डोले
नयन मिलें, नयनों में अपरा-
जित जीवन की भाषा बोले
अपनापन विहँसे, मन हेरे मुग्धनयन का डबडब होना
छू लें चाँद, चूम लें तारें, महके मन का कोना-कोना
मेरी साँझ ! तुम्हारे माथे श्याम मेघ का रचूँ डिठौना
मृदु एकान्त, सुहानी वेला
नाचे मन का मोर अकेला
बजें कल्पनाओं के घुँघरू
जुटें मृदुल भावों का मेला
झिमिर-झिमिर रस-फुहियाँ बरसें
झोंके झेल-झेल हिय हरषे
लूँ सोंधी सुगन्ध नीचे की
सुधा-कलश ढरके ऊपर से
झरें हर्ष के अश्रु, रसों से भरूँ, जुही-पातों का दोना
परम तृप्ति का वेग सहेजूँ, मन को सप्त-लोक पर भेजूँ
सुध-बुध खोऊँ, रमूं शून्य में, भूलूँ री ! मैं अपना होना
मेरी साँझ ! तुम्हारे माथे श्याम मेघ का रचूँ डिठौना