राग भटियार, तीन ताल 4.9.1974
मेरी स्वामिनि राधा रानी।
रसिकराय की प्रानजीविनी, रसिकन की रजधानी॥
प्रीति-रीति की सार सलौनी, वेद-विदित गुनखानी।
मेरी एकमात्र जीवननिधि रस-रंजिनि, रसखानी॥1॥
स्याम-चन्द्र की चटुल चकोरी, अति भोरी जग जानी।
ताके पद पंकज की अलिनी ललिनी मैं मन-मानी॥2॥
कलित कान्ति ताकी लखि सहमहिं रती-सती ब्रह्मानी।
अति उदार, रस-सार, रँगीली, उमा-रमा वरदानी॥3॥
सदा-सदा मैं चेरी तेरी, तव रति-रस उमहानी।
चरन-सरन में सखि स्वामिनी! करहु सदा मन-मानी॥4॥
तुम ही मरी एकमात्र गति और न मैं कोउ जानी।
दीन मीन तुव रति-सरवरकी, तामें रहहुँ समानी॥5॥