बहुत बदल गयी हैं लड़कियाँ आजकल
वो कहते हैं कि बिगड़ गयी हैं लड़कियाँ आजकल
जो कभी धैर्य शील की परिभाषा थी,
मौन ही जिसकी भाषा थी,
वो अब हर बात का जवाब देने लगी है
नहीं रोती बन्द कमरों में किवाड़ लगा कर,
हर उचित अनुचित कृत्य का हिसाब लेने लगी है।
क्योंकि उसने देखा है माँ को,
सुबह से रात तक
ओखली से जाँत तक
कभी पीसते कभी पिसते हुए
दादी की दुर्गंध साफ कर
बाबा की धोती पर साबुन घिसते हुए
उसने देखा है तमाचा खा कर भी
हर शादी में बुआ को हँसते हुए
मौसी की सुंदरता पर लोलुप चाचा को
घटिया-सा तंज कसते हुए
उसने देखा है अपनी उलझे बालों वाली माँ को
चाहे अनचाहे संवरते हुए
अशुद्ध दिनों के दर्द को झेलती
पिता की झूठन कुतरते हुए।
वो जानती है कि शील की मूर्ति बनकर भी
उससे उसके हर पल का हिसाब माँगा जाएगा
उसके हर एक कौर पर अहसान लादा जाएगा
दिन भर तो खाली पड़ी रहती हो!
बैठे-बैठे खाती रहती हो!
जाने क्या चमकाती रहती हो?
किसके लिए खुद को सजाती रहती हो?
उसने महसूस की है उन सूनी आखों की तरावट
जब महीनों बुआ को बुलाने कोई न आया था
"बंजर धरती का काम नहीं" सन्देशा भिजवाया था
धरती बंजर थी या बीज बेकार
यह जानने की एक कोशिश न हुई
वो मनहूस बाँझन बन गयी, जो रही अनछुई
पर अब उसकी अजन्मी बहनों की चीख
सवाल करती है।
अपने सवाल का जवाब माँग कर
आज वह बवाल करती है।
लड़ाका है, पटाखा है, दमदार ठहाका है
ये आजकल की लड़की
सदियों के द्वंद का जयघोष करती पताका है।
वो खुद को जान चुकी है
अहमियत सम्मान की पहचान चुकी है
वर्जित कलपुर्जों को उसने अपनी उंगलियों से खोला है
सुप्त इंद्रियाँ जाग गयी हैं
"नहीं अब और नहीं" बस यही तो बोला है
और तुम अभी से घबरा गए,
प्रवचनों में बेटी को हीरा बता गए।
लेकिन अब वह कोई खुली तिजोरी और सफेद कपड़ा नहीं है
कि उसपर तुम्हारा दाग लग जायेगा
प्लास्टिक की परत चढ़ा ली है उसने
तुम्हारा कीचड़ उसके सम्मान की धार से
खुद ब खुद बह जाएगा।
उन्मुक्त है स्वच्छंद है
ख़ुद की सोचती है, उदण्ड है
पर आज भी तुम हो उसी पर आश्रित
हर घर की वह मेरुदण्ड है।