जब भी सूनी राह में मुड़कर देखा
विकल दृष्टि ने तुम्हें ही पाया
इसको मन का भ्रम कहूँ झूठा या
अंश स्वयं के पदचापों की प्रतिध्वनि का
अधिकांश निरुत्तर ही रहती हूँ
बस खोयी हुई चलती रहती हूँ
कभी आगे-कभी पीछे देखते हुए
तुम्हारे ही अनुभव का भाव लिये।
भाग्य नहीं दयालु इतना मेरा
कि तुम्हें मुझे वह दे दे पूरा
अंशों में जीती हूँ किन्तु यह बंधन,
तुम्हारे आभास का एक पूरा जीवन।
इसी में पीड़ा लेकर मुस्काना,
अर्धचेतन सा तुम्हें रटते जाना।
कुछ सीमाओं की घनघोर विवशता,
और कुछ अपनी ही अनिश्चतता।
सम्भवतः विवशता कभी तो टूटेगी,
पल-पल की अनिश्चतता छूटेगी।
तब तुम पूर्ण मेरे ही होओगे,
जब मेरे आलापों में खोओगे।