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मेरे गांव की चारपाई / राजेन्द्र देथा

बीच धोरों के बसा मेरा गांव
सुंदर तो नहीं,
बेहद सुंदर है शायद
ठीक गांव के बीच
डिग्गियों के दाएं
शंभू सिंह की दुकान के
बाहर रखी चारपाई गांव की
सांप्रदायिक सौहार्दता की प्रतीक है।
थली की उस 48 डिग्री धूप के
उतरने के ठीक बाद
आ बैठते है गांव के
युवा-बुजुर्ग जमाने हथाई
इन्हीं दुकानों पर
खाट पर लाल साफे में
बैठे स्वरूपसिंह
सामने बैठे रहमान से
बतियाते रहते हैं।
न सरूपिंग भगवा जानते
न रहमान हरे को पहचानता
न ही वे बातें पसंद करते
मजहब की किलकारी की।
वे बातें करते है ग्वार-चने के दामों की
वे बातें करते है नहर के पानी की
जिनसे सींचना होता है
उनको स्वयं का घर।
कभी कभी वे इसी पानी की बात पर
सरकार को शब्दों की
छड़ी से मारते भी हैं
लेकिन सरकारों के
ऐसी छडियां कब असर करती।
वे राजनीति के नाम पर दो ही नाम जानते है
एक बडोडा भाटी साहब तो एक छोटोड़ा भाटी साहब
ख़ैर.....
इनसे भी वोट देने तक का रिश्ता है!