मेरे द्वारप्रान्त में रहता प्रातःकाल निरन्तर,
ऊपर सिर को नहीं उठाता मुझसे भुवनविभाकार।
हरीतिमा का महासिन्धु लहराता ज्वार उठाकर,
अन्दर आग लगी रहती है, पानी बहता बाहर।
आते नज़र किलकिले, नीलकण्ठ नीले परवाले,
धबर फाख़ता, लाल गुलाबी मुनिया, तीतर काले।
ठोक-ठोक कर शाखाओं को कठफोरे चितकबरे,
गहरे विवर बनाते उनमें अपने रैन-बसेरे।
जहाँ काबुली हरे कबूतर मुक्त गगनचर उड़कर,
लेते गिरह कला-सी खाते मार रहे लोटन परं
निसावरे, गोले, गफूरिए, चीने स्वर में मादन,
लक्के मोहन सम्मोहन से खींच-खींच लेते मन।
बबरे, जालदार, तिलनौके, स्याह, तामड़े, नीले,
धूमा, सुर्खा, कल चोंचे, कल सिरे, ललसिरे, चितले।
बिड़री ढीली-सी दुमवाली मटमैली सतबहिनी,
उठा रही परदा रहस्य का स्वर-लहरी में अपनी।
ढीठ महोख गगन में उड़ते नीड़ छोड़कर अपने,
चोंच बाज-सी टेढ़ी, गहरे खैरे जिनके डैने।
अबाबील लम्बे पंखों को थोड़ा हिला-हिलाकर,
बहुत सबेरे उड़कर जाती कहीं यहाँ से बाहर।
तेज चोंच से छेद पत्तियों में कर उन्हें पिरो कर,
बना रही है दरजिन अपना गोल घोंसला सुन्दर।
बाँध रहा मजमून पपीहा स्वर-बन्धन में अपने,
मधु टपका कर पान कराता स्वर-व्यंजन में अपने।
देखो, टहनी पर गुलाब की गजल गा रही बुलबुल,
मीड़-तान से मचा रही हलचल अन्तर में व्याकुल।
बाँध रही रूपक-पर-रूपक पीलक पीली-पीली,
जितनी चमकीली लगती है, उतनी ही शरमीली।
तरुशिखरों से उड़े हुए खग मचा रहे कोलाहल,
इधर-उधर फिर पल में हो जाते आँखों से ओझल।
मँडरा रहे उकाब सुनहले चिर-परिचित पहचाने,
गोते खाकर ऊपर उठते जाते दुम को ताने।
ढूँढ़ रही कीड़ों को हुदहुद तरु-विवरों के भीतर,
बार-बार नख से कुरेद कर ठहर-ठहर रुक-रुककर।
मीठे पके फलों से ही भर-भर कर पेट ठठेरे,
चहचह करते आते-जाते घर-आँगन में मेरे।
तानें लेती देर-देर तक जलमुर्गी रह-रह कर,
हर्षमग्न मतवाली-सी बन साज बजाती सम पर।
छकी वारुणी से वसन्त के कोकिल का कल कूजन,
प्राणप्रिया की याद दिलाता प´्चम में उन्मादन।
खाते हुए झकोले करते अर्घ्य धरा को अर्पण,
सागवान, शीशम, महोगनी मरमर स्वर में गोथन।
महादान देते पलाश-चम्पा सीमा-रेखा पर,
मर्त्यलोक है जिनके कारण देवलोक से बढ़कर।
तोल रहे रंगों में नजरें आम-आँवला प्रतिपल,
धड़क रहा है जिनमें मेरा ही आकुल अन्तस्तल।
खड़े अशोक सुनहरे परिधानों में सिर ऊँचा कर,
बिना हँसी के ही हँसते-से नज़र टिकाए मुझ पर।
मेरे स्वपनों के जादू में झूम रहा गुलमोहर,
अपने ख्यालों में खोया-सा गर्क नशे में गूलर।
मन्द पवन तुलसी-मंजरियों के परिमल से लद कर,
ऊपर-नीचे प्राणकोश में संजीवन देता भर।
इत्र उड़ाती पत्रभंगिनी जूही निःश्वासों से,
मदलेखा लिख रही कामिनी मन्द-मन्द हासों से।
देता जब वसन्त स्वर-व्यंजन को अभिव्यंजन नूतन,
निकट खेत में बिछा प्रकृति देती अपनी हृयासन।
झोंके खाता अम्बर तीसी के नीले फूलों पर,
इन्द्रधनुष सातों रंगों में छा जाता भूतल पर।
लेते पहन मटर अरहर अकबन फूलों के शेखर,
जौ, गेहूँ आनन्द उगलते मन्दहास से बाहर।
बकुल-कुसुम पर लुब्ध-मुग्ध भौंरों का गुंजन भनभन,
अन्तर्मन में एक हिलोर उठाता कर मदवर्धन।
लेती है मेथी फुटाव यौवन चढ़ने से अपने,
टटके खिले हुए फूलों के दामी गहने पहने।
हवा उड़ाती टिकुली जड़ी चम्पई पीली चादर,
फूली सरसों पर हल्दी का अंगराग न्योछावर।
सिन्दूरी स्वर्णिम लपटों में अड़हुल डहक-डहक कर,
करता रहता चामुण्डा काली का ध्यान निरन्तर।
जगा रही रंगों के जादू तितली सुध-बुध भूली,
पत्तों से छतनार टहनियों पर गुलाब की फूली।
मेरी प´्चवटी में चौमासा, छःमासा, चाँचर,
हर्षविभोर बनाते रजकण में मधुकण बरसाकर।
कागा ले भागा नकबसेर, प्राण हुलसते सुनकर,
तुले मारने पर चैतावर, फाग, नचारी, झूमर।
हृदय झूम कर घास-पात की झांेपड़ियों में जर्जर,
बार-बार झरते धरती पर वकुलकुसुम-सम झर-झर।
यज्ञपदी बन सदा बहाती रहती मधु का निर्झर,
शकुन्तला, तारा, मनोरमा पागुर करती चर कर।
दुग्ध-भुवन की सुरभि-देवियाँ थन में जिनके सागर,
मुख में वेद, मूत्र में गंगा, आँखों में शशि-दिनकर।
पंखा-सा झल, अन्तर से कर अन्तर का आलिंगन,
मद से मतवाली सावन की हवा छिड़कती चन्दन।
रस-फहार बरसाते भस्म रमाये मेघ उनीले,
वैनतेय-सम उड़ते अम्बर के वितान पर नीले।
माया का यह दृश्य लग रहा कितना नयन विमोहन,
कैसा होगा इसके भीतर दिव्य अनन्त चिरन्तन?
लिख कर काल-भाल पर अनबोले-से धुँधले अक्षर
एक रूप को विविध रूप में बिलकुल बदल-बदल कर,
छन्दित होता प्राण-शक्ति का सोम-सरोवर क्षण-क्षण,
परम पार के नाभिवलय में सीमाओं का विलयन।
दाएँ-बाएँ करवट लेती कविता हृदय-पटल पर,
प्रतिबिम्बों को बिम्बों से भी सुन्दर अधिक बनाकर।
निकट दूर को, दूर निकट को, पत्थर को जंगम कर,
आत्मगन्ध की लहर उठाती दिव्यलोक के ऊपर।
एक विराट धेनु-सी निखिल प्रकृति का होता दोहन,
टपक रहा जिसके अन्तर-मन्थन से मधुकण मादन।
काल-कला का छन्द-ग्रन्थि के बन्धन में संयोजन,
बिन्दु-बिन्दु पर मित के नमन अमित का ज्वलन-समिन्धन।