मेरे पुरखे (एक) / भूपिन्दर बराड़

वे अड़े रहे अंत तक
खड़े रहे अपनी खुरदरी जड़ें जमाए
फ़सल कटने के बाद भी
जैसे खेतों में खड़े रहते हैं ठूंठ

वे आसानी से जाने वालों में नहीं थे
न चुप रहने वालों में

अपनी नुकीली उंगलियों
और असभ्य भाषा से
वे नोचते रहे आसमान का जिस्म
रात के अंधेरे में
कोसते रहे सख्त हुई सूखी मिट्टी को:
तुम्हीं तो थी गर्भ की गहराई-सी गीली और नर्म
तुम्ही में लुप्त हुए सैंकड़ों बीज
तुम्ही ने चुना हमें पनपने के लिए
निर्लज्ज हो जो अब चुप हो
कैसे करें यकीन कि तुम मर गयी हम से पहले

उन्होंने अंत तक किया बरसात का इंतज़ार
अंत तक कहते रहे लौटेंगे हम
इसी मिट्टी से जन्मेंगीं हमारी अगली पीड़ियां
हजारों होंगे हम जैसे जब हम नही होंगे
सीधा सरल जीवन जीने की इच्छा रखने वाले
ईमानदार और मनहूस

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