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मेरे प्रिय / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल

मेरे प्रिय...!
मेरे प्रिय का सब ही अभिनंदन करते हैं
मेरे प्रिय को सब ही सुंदर कहते हैं
मैं लज्जा से अरुण, गर्व से भर जाती हूँ
मेरे प्रिय सुंदर शशि से मृदु-मृदु हँसते हैं !

वे जब आते लोग प्रतीक्षा करते रहते हैं
जा चुकने पर कथा उन्हीं की सब कहते हैं
मेरे गृह पर वे प्रवेश पाने की विनती--
बहुत समय तक कर चुपचाप खड़े रहते हैं !

मेरे प्रिय बसंत-से फूलों को लाते हैं
लोग उन्हें लख भौंरों से गुँजन गाते हैं
वे उन सब को भूल कुंज पर मेरे आते
मेरे फूल न लेने पर प्रिय अकुलाते हैं !

वे जब होते पास न मैं कुछ भी कहती हूँ
वे जब होते पास न मैं उन को लखती हूँ
वे जब जाते चले निराश साँस भर-भर के
उनकी ही आशा से मैं जीवित रहती हूँ !

(1937-39 की रचना, जब कवि बी.ए. में पढ़ रहे थे)