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मेरे फुफकारने भर से / वंदना गुप्ता

मेरे फुफकारने भर से
उतर गए तुम्हारी
तहजीबों के अंतर्वस्त्र
सोचो
यदि डंक मार दिया होता तो?

स्त्री
सिर्फ प्रतिमानों की कठपुतली नहीं
एक बित्ते या अंगुल भर नाप नहीं
कोई खामोश चीत्कार नहीं
जिसे सुनने के तुम
सदियों से आदि रहे
अब ये समझने का मौसम आ गया है
इसलिए
पहन लो सारे कवच सुरक्षा के
क्योंकि
आ गया है उसे भी भेदना तुम्हारे अहम् की मर्म परतों को ओ पुरुष!