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मेरे युग / मोहन अम्बर

मेरे युग मुझको बतला तू तुझ में क्यों ऐसी जड़ता है,
चलने वाले से चिढ़ता है रूकने वाले से लड़ता है।

संध्या को थके पखेरू जब लौटे तो पेड़ हँसे उन पर,
वह व्यंग वेदना बन बैठा हँसने गाने वाले वन पर,
ऐसे में ढलती किरणों का सदियों का अनुभव बोल पड़ा,
जब प्यास पुकारा करती है बादल को आना पड़ता है,
जब नीर निमंत्रण देता है प्यासे को जाना पड़ता है।

जिस जगह जिद्द कर बैठी गति कांटों को मिला वहाँ अवसर,
ऐसे अवसर पर पगडण्डी मंज़िल को दे न सकी उत्तर,
इतने में गूंगी माटी ने पद-चिन्ह दिखाकर समझाया,
जब राह कठिन हो जाती है हर कुशल बटोही मुड़ता है,
टूटे को अगर जोड़ना हो बिन गाँठ कहाँ कब जुड़ता है।

पागल आँधी उन्मन माली पतझर के लिए नहीं दोषी,
और न दोषी हो सकती तितली भंवरों की ंखामोशी,
बगिया की इस उलझन को यों सुलझाया सूखे पत्तों ने,
जब गंध अधिक बौरा जाये निश्चित ही बाग़ उजड़ता है,
अक्सर ही विकृति के हाथों बन बैठा काम बिगड़ता है।