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मेरे शब्द / लोकमित्र गौतम

हां, तुम सही कहते हो
शब्दों पर मेरी पकड़ जरा ढीली है
कई दफा मेरी कविताओं में कई शब्द
अपनी अलग ही राह पकड़ लेते हैं
कई बार हम दोनो साथ साथ चलते हुए तो दिखते हैं
मगर रेल की दो पटरियों की तरह
अपने अपने छोर मजबूती से पकड़े हुए
कई बार हम लोग तिर्यक रेखा पर एक दूसरे से टकराते हैं
बिल्कुल अजनबियों की तरह
कई बार हम आपस में समकोण बनाते हुए दिखते हैं
कुल जमा बात कहने की ये है
कि मेरे शब्द कई बार मेरी परवाह नहीं करते
मगर हमारे बीच का ये निहत्थापन
किसी समर्पण या सामर्थ्यहीनता का नतीजा नहीं है
यह हमारे साझे सामर्थ्य का फलीभूत है
मैं पूरे होशोहवास में मानता हूं
कि हर शब्द की अपनी एक स्वतंत्रा नागरिकता होती है
उसका देश
उसकी निज भाषा
उसका मौन
उसकी मुखरता
उसके विचार
उसके एहसास
उसके सुख दुख
उसकी अपनी पसंद नापसंद
बिलकुल अपनी होती है
एक शब्द में कहूं तो उसका एक पूरा वजूद होता है
अब तुम्हीं बताओ ऐसी भरी पूरी दुनिया के मालिकों को
मैं पकड़कर कैसे रखूं
उन पर अपने आदेश का कोड़ा कैसे फटकारूं
हां, तुम यह भी सही सोच रहे हो
एक डर उनसे पटखनी खाने का भी है
मगर शायद उससे भी बड़ा डर
अपने द्वारा ही अपने पकड़े जाने का है
मैं शब्दों पर सत्ता कायम कर
अपनी आत्मा का वैफदी नहीं होना चाहता
इतना लोकतंत्रा तो मुझमें भी है
कि इस सार्वभौमिकता के युग में
शब्दों की सम्प्रभुता का सम्मान कर सकूँ
इसीलिये मेरी कविताओं में
हुक्म तामील करने को तत्पर
गुलामशब्दों की भीड़ मत ढूढ़ना
तलाशना तो दोस्तदिल जिंदा शब्दों का जमावड़ा तलाशना
मेरा डेरा कोई मठ नहीं, कम्यून है
इसलिये यहां शब्दों पर अपनी मठाधीशी का
कोई सवाल ही नहीं उठता
मेरे यहां शब्द समानधर्मी हैं
स्वतंत्राधर्मी हैं
इसलिये
मेरे यहां शब्द कौतूहल की डुगडुगी बजा मजमा नहीं लगाते
न ही उस्ताद के इशारे पर जमूरे की माफिक कलाबाजियां दिखाते हैं
मेरे यहां शब्द अग्निदीक्षा लेते हैं
अग्निदीक्षा देते हैं