राग नायकी, तीन ताल 27.8.1974
मेरो हिवड़ो उमड़्यौ आवै।
कहँ लगि कहों स्याम! तव करुना, मोते कहत न आवै॥
सब कछु दियो न लियो नाथ! कछु, अस उदार को पावै।
जो कछु मिल्यौ लगत अपनो ही, माया यही कहावै॥1॥
तदपि हाय! तुमकों विसारि, यह मन इत-उत ही धावै।
सब कछु भजै तजै तुमहीकों, तोहूँ सरम न आवै॥2॥
सदा भजत विषयन के पाछे, उनहीकों नित ध्यावै।
उनसों बँधि उनही में बूड़त, तदपि न कछु सकुचावै॥3॥
अतुलित कृपा करी तुम प्यारे! तदपि न यह लखि पावै।
बाकी या उरझनकांे मोहन! तुम बिनु को सुरझावै॥4॥
लग्यौ भोग को रोग तदपि याकों भोग ही सुहावै।
बिना तिहारी कृपा-दृष्टि को यासों याहि बचावै॥5॥
ऐसी कृपा करहु अब प्यारे! तुम तजि कछु न भावै।
मन वच करम तिहारो ह्वै यह सदा तुमहिकों ध्यावै॥6॥
तुव पद-रति ही हो निज गति अब, और न कहुँ यह आवै।
सदा तुमहि में रचि-पचि अब यह तुम ही माहिं समावै॥7॥