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मेला / स्वप्निल श्रीवास्तव


जब मैं छोटा था

अक्सर चलते हुए थक जाता था

दादा मुझे कंधे पर बिठा कर टहलाते थे


एक दिन कंधे पर बिठा कर

नदी, पुल, जंगल पार करते हुए

मेले में ले गए थे


उनके सुरक्षित कंधे पर

मैं चिड़िया की तरह फ़ुदकता था

सीवान में आते-जाते मेलहा को देखता था


मेले में पहुँचते ही

शुरू हो गई थी, हज-हज

खिलौनों और मिठाइयों की दुकानों पर टूट पड़े थे बच्चे


मैंने एक पिपहिरी ख़रीदी

उसे दादा के कान में चुपके से बजाया

चौंक उठे थे दादा

उन्होंने प्यार से उमेंठ दिए थे कान


चारों तरफ़ सजी हुई थीं दुकानें

रंग-बिरंगे नए कपड़े पहन कर

मेले में घूम रहे थे लोग

कुछ पेड़ की छाँह में गुमटिया कर बैठे हुए

गाँव-गढ़ी की बतकही कर रहे थे

औरतें अपने सम्बन्धियों से कर रही थीं भेंट-अकवार


भीड़ के एक गोले की तरफ़ इशारा करते हुए

मैंने दादा से कहा

मैं वहाँ देखूंगा तमाशा जहाँ लड़ रही हैं भेड़ें


मैं दादा के कन्धे पर खड़ा हो गया

मैं उनसे बड़ा हो गया

मैं मेले की भीड़ से बड़ा हो गया


मैंने सोचा क्या मैं वृक्ष से भी ऊँचा हो सकता हूँ

क्या मैं छू सकता हूँ आसमान


मैं यही सोचता रहा

धीरे-धीरे ख़त्म होता गया मेला

सुनसान होती गई जगह

कहाँ पंख लगाकर उड़ गए इतने लोग


घर पहुँचते दादा ने मुझसे कहा--

अब डाल से उतर जा चिड़िया

करने दो पेड़ को विश्राम

और दादा भी ग़ुम हो गए