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मेला पहाड़ सँ समुद्र धरि / जीवकान्त


अहाँ टुटलाही आसन पर
एहि निर्जन कोण में बैसल छी
यहाँ लेसने छी पितरिक पुरना दिवारी
जकर टेमी सुखाईत अछि
टेमी पर ममरी अछि मोट
कतए सँ होयत इजोत?

अहाँ रचने छलहूँ अपन प्रकाश
अहाँ अपन अन्हारो छलहूँ रचने
यहाँ भोतिया भेल छी

आब छोड़ि दिय ई सिंहासन
बहराउ आ दिनका प्रकाश में आऊ
ताकू अपन सही जग
सन्हिया जाऊ लोकक मेला में
हेरा जाऊ जनारण्य में

मेला अछि पहाड़ सँ समुद्र धरि
मेलाक गति कँ पकडू
छोड़ू सिंहासन छोडू पुरान खटिया कँ
बैसल-बैसल भेल छी माटि
बैसल छी त उठतहूँ पड़त
ताकय पड़त प्रकाश
आ बड़का टा आकाश!