मेले में
एकाएक उठती है रूलाई की इच्छा
जब भीड़ एक दुकान से दूसरी दुकान
एक चीज़ से दूसरी चीज़
और एक सर्कस से दूसरे तमाशे पर
टूट रही होती है
एक धूल की दीवार के उस पार
साफ़-साफ़ दिखता है
पन्द्रह बरस पहले का घर और माँ
आज भी रखी है पन्द्रह बरस बाद
गुड़ और रोटी के साथ सहेजी हुई
मॉं की आवाज जो भीड़ में
उंगली पकड़कर चलने को कहती है
न मैं भटका न खोया
अगर कुछ खोया तो बस एक घर
इस मेले मे
जिसे मैं आज तक ढूंढ नहीं पाया।