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मेहराब थी जो सिर पे, धमक से बिखर गई / योगेन्द्र दत्त शर्मा

मेहराब थी जो सिर पे, धमक से बिखर गई ।
मीनार इस तरह हिली, बुनियाद डर गई ।

हम सोचते ही रह गए, कैसे ये सब हुआ,
निकली कहाँ से बात, कहाँ तक ख़बर गई !

तुम क्या गए, शहर की ही रौनक हवा हुई,
पीली उदासियाँ थीं, जहाँ तक नज़र गई ।

हमने तो हँस के हाल ही पूछा था आपसे,
इतनी-सी बात आपको इतनी अखर गई !

मैंने ख़ुशी को पास बुलाया था प्यार से,
लेकिन 'वो' मेरे पास से होकर गुज़र गई ।

अपनों की बात आपने समझी नहीं कभी,
ग़ैरों की बात कैसे जेहन में उतर गई !