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मैंने अपने आप को / अज्ञेय

 मैं ने अपने-आप को सम्पूर्णत: तुम्हें दे दिया है। पर तुम और मैं अत्यन्त एकत्व नहीं प्राप्त कर सके।
हम मानो एक अगाध समुद्र में उतरे हुए दो गोताखोर हैं। संसार की दृष्टि में हमारा स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है- क्योंकि संसार हमें नहीं देखता, वह देखता है केवल उस प्रशान्त समुद्र की असीम बिछलन को, जिस की सीमाहीनता ही उस की एकता है।
पर हम-तुम- हम-तुम एक-दूसरे को देख सकते हैं और देखते हुए अपना अलगाव जानते हैं। संसार की दृष्टि से बहुत परे आ कर हम एक-दूसरे से अलग हो गये हैं।- और जो जल हमें संसार की दृष्टि में एक करता है वही हमारे मध्य में है और हमारे विभेद का आधार हो रहा है।
मैं ने अपने-आप को सम्पूर्णत: तुम को दे दिया है, पर तुम और मैं अत्यन्त एकत्व नहीं प्राप्त कर सके।

दिल्ली जेल, 28 दिसम्बर, 1932