मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, 
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने ? 
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, 
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने ?  
मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले ? 
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले ? 
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने ? 
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने ?  
पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे ? 
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे ? 
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने- 
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने !  
अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है- 
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है ? 
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है- 
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है  
मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया- 
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है ! 
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ 
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ  
मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने 
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने ! 
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने- 
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने  
बड़ोदरा, 15 जुलाई, 1937