ऊंची ईमारत की
आख़री मंज़िल से
जब शहर का मैंने मंज़र देखा
मैंने देखा
तीस बरस की
बूढ़ी माँ का
आठ बरस का जवान बच्चा
अपने कांधे का सहारा देकर
सफ़र की थकान उठा रहा था
भूक की शिद्दत से
ख़ुद अपने होंठ चबा रहा था
मैंने देखा
एक चौराहे पर
मजबूर खड़े थे कई
मुंह पे गमछा बंधा हुआ था
जाने कैसा सफ़र था
जाने क्यूं थमा हुआ था
रास्ता ख़ामोशी से इनके
पैरों तले पड़ा हुआ था
सब एक दुसरे को
हैरत से देख रहे थे
लोग खिड़कियों से
मदद फेक रहे थे
ऊंची ईमारत की
आख़री मंज़िल से
जब शहर का मैंने मंज़र देखा
मैंने देखा॥