मैं असमर्थ हूँ
चौराहों पर बिखरी लाल-लाल छींटों को
समेट कर सुर्ख गुलाबों के
एक गुलदस्ते का रूप देने में
जिसे मैं महाराजा को सौंपना चाहता था
वह सूँघ लेता उस गुलदस्ते में
हज़ारों निर्दोषों के ख़ून से रँगे
अपने हाथों की गन्ध ।
मैं असमर्थ हूँ
फ़ज़ा की लहरियों पर हिचकोले खाती
असँख्य आहों को समेट कर
एक सशक्त चीख़ का रूप देने में
मैं अपने दुखों का विशाल जुलूस निकाल कर
महल के मुख्यद्वार के निकट पहुँच जाता
एक नारे में ढलती इस चीख़ की गूँज से
उसके सभी ताले टूट जाते
और फट जाते कानों के पर्दे भी
बदमिज़ाज और बदनीयत शासक के ।
मैं असमर्थ हूँ
आधी माओं और आधी विधवाओं के
आँसुओं की एक-एक बून्द को समेट कर
एक ऐसे सैलाब का रूप देने में
जो तानाशाह के क़िले तक पहुँचकर
उसके सिंहासन और राजमुकुट के साथ-साथ
उसके अहँकार तक को भी
तिनके की तरह बहा ले जाता ।
मैं असमर्थ हूँ
तर्क के एक-एक शब्द को समेट कर
और यथार्थ भरी पँक्तियों में सजाकर
एक ऐसे दर्शन का रूप देने में
जो खोखली जुमलेबाज़ियों की खाल को
क्षण भर में उधेड़ कर रख देता ।
मैं असमर्थ हूँ
हत्यारे को मसीहा, भक्षक को रक्षक
आतँकवादी को योद्धा, बर्बर को दयालु
तानाशाह को सेवक, क्रूर को दयालु
विष को अमृत, रूढ़िवाद को ज्ञान कहने में
और धर्म की चौखट पर माथा टेकने वाले
मुसोलिनी और हिटलर की परम्पराओं के पुजारी को
धर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक और समाजवादी कहने में ।
मैं समर्थ हूँ
यह सब कुछ सोचने में
जबकि यह सब कुछ करने में
मैं असमर्थ हूँ
और इसलिए मेरे भीतर कहीं
एक डरा हुआ, असहाय और बाध्य सफ़ेद कबूतर
अपनी निष्फल आकाँक्षाओं को मन में छुपाकर
निरन्तर फड़फड़ा रहा है ।