मैं मेरी आवाज़ को कैसे सुनूं कोई तो बताए मुझे
लब्ज़ मेरे अधरों पर अटके हुए कोई
तो आवाज़ लगाए मुझे
शब्दों का सुना पन है मुझमें
कोई तो आवाज़ लगाए मुझे
ऐ वक़्त क्या गुनाह किया मैंने
क्यों कोई आवाज़ नहीं लगाए मुझे
सागर का सुनापन भी रोज़ डराता
बादलों का मौन भी यूं ही इठलाता
लगता है ओस से बढ़कर नहीं ज़िन्दगी हमारी
फिर भी क्यों हवाओं ने भी दिखा दी कलाकारी
कुछ तो ग़लती हुई होगी मुझसे
यह वक़्त का सूनापन भी आज तक नहीं मिटता
भरीं दोपहरी में कोई तो आवाज़ लगाए मुझे
मुझे चुप रहना अब अच्छा नहीं लगता
हालचाल मैं भी पुछूं तो मैं भी बताऊँ
अब यह मौसम मुझे अच्छा नहीं लगता
कोई तो मुझे आवाज़ लगाए
मुझे चुप रहना अब अच्छा नहीं लगता
हरदम में कितना ख़ुद से बात करूँ
यह मन ही मन नहीं थमता
मैं मनुज हूँ मनुजों से बात करना अब मुझे नहीं
अच्छा लगता
अब मैं प्रकृति से बात करूँगा
तब ही मेरा मन भरता
पेड़ पौधों से तो कभी बात नहीं होती
कितना भी दिल करता
उनसे मैं क्या बात करूँ
मन ही मन में सुनता
कभी हमसें से भी हालत पुछो कभी हमसें भी सवालात करो
अन्दर ही अन्दर क्या हंसते
जरा़ हमसें भी बात करो
बड़ी अजीब है ऐंठ तुम्हारी भी हम भी जिद्दी बन बैंठेंगे
जब तक आप यूँ चुप रहगो हम भी चुप नहीं बैठेंगे
नानी वाली कहानी सुनाऊँगा एक दिन तो मैं मनाऊँगा
चलो आज तो शाम हो गई कल फिर मिलने आऊँगा