कहाँ से करूँ शुरू,
मैं कौन हूँ?
मैं,
वाणी से कटु बोलता,
कह जाता हूँ खरी खरी,
जहां देखता हूँ अंधियारा,
वहां जलाता देह-भरी।
मैं चुनौति बनता हरदम,
पतन, पाप, पाखण्डों को,
मन में शक्ति की उर्जा है,
बल खुद के भुजदंडों का।
मैं इतिहासों को जीता हूँ,
सुरा स्वप्न की मैं पीता हूँ,
स्वप्न देखता मैं उस कल का,
जहां सांच को आंच न होगी,
हर हाथों को रोजी होगी।
मैं संस्कृति का कीङा हूँ,
मरते किसान की पीङा हूँ,
मैं मरता हूँ हर दिन हर पल,
सरहद पर मैं सैनिक होता हूँ,
रोज सवेरे अखबारों संग,
मैं अपने आँसू खोता हूँ।
मैं चीखता हूँ हमेशा,
क्या हूँ पागल ?
या सनकी हूँ ?
क्या है पीङा मेरी ?
क्यूं दर्द होता है मुझको ?
जब जब कहीं धमाके होते,
नहीं मरता,
मेरा कोई अपना,
पर उदासी छा जाती है।
पर,
हर बार मैं खङा होता हूँ,
खुद के पांवों में दम भरके,
खङा हो जाता हूँ मैं फिर से,
अपने विश्वासों के दम पर,
फिर लङता हूँ मैं खुद से,
खुद ही खुद को रहा तोलता,
संस्कारों की तकङी पर,
जानता हूँ लगा है डेरा,
सबका सूखी लकङी पर।
मैं हरदम ये दम भरता हूं,
शक्तिसुत हूँ,
गौरव करता हूँ,
करता हूँ तुलना मैं खुद से,
और खुद के ही गौरव से।
मैं सच की खातिर अङ जाता,
हार-जीत की नहीं सोचता,
मैं तो बस केवल लङ जाता।
कब तक मैं टिक पाऊंगा,
जाने कब तक लिख पाऊंगा,
सबने सोचा बिक जाऊंगा।
पर,
मैं तो गायक हूँ सच का,
चारण धर्म निभा जाऊंगा,
सच को सच कहने की हिम्मत,
माँ तेरे कारण पाऊँगा,
हरदम रखना हाथ शीश पर,
मैं तुझसे यही चाहूंगा,
जब तक है सांसों में सांसे,
तब तक गीत सच के गाऊंगा।।