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मैं गीत इसलिए लिखता हूँ / अमरेन्द्र

मैं गीत इसलिए लिखता हूँ
बदनाम न मेरा प्यार बने।

कुछ लोग मगर यह कहते हैं
मैं खुली-खुली सब बात लिखूँ
काजल लिखूँ न कालिख को मैं
या आँखों मेें रात लिखूँ
जब भाव छिपाए कुछ मैनें
जग ने देखा अंगार बने।

कुछ बात दिलों की होती है
जो बोला करती मूक बनी
जग कहता रो के दिखलाऊँ
जो सीने में है हूक बनी
मै इस चिन्ता में डूबा हूँ
किस तरह शब्द शृंगार बने।

मैंने जग की बात न मानी
घूँघट की ही बात रखी है
हारा जहाँ-जहाँ यह दिल था
वहाँ-वहाँ पर जीत रखी है
बाँट रहा हूँ प्रेम-गीत मैं
जग जिससे ये कचनार बनें।