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मैं घर लौटा / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

बहुत मैं घूमा पर्वत ­पर्वत

नदी घाट पार खूब नहाया

और पिया तीरथ का पानी

आग नहीं मन की बुझ पाई।


बहुत नवाया मैंने माथा

मन्दिर और मज़ारों पर भी

खोज न पाया अपने मन का

चैन जरा भी ।

रेगिस्तानों में चलकर के

दूर गया मैं सूनेपन तक

आग मिली बस आग मिली थी।

मैं लौटा सब फेंक ­फाँककर

भगवा चोला और कमंडल

और खोजने की बेचैनी

उन सबको जो नहीं पास थे

पहले मेरे।

मैं घर लौटा।

आकर बैठा था आँगन में

टूटी खटिया पेड़ नीम का

बिटिया आई दौड़ी­ दौड़ी

दुबकी गोदी में वह आकर

पत्नी आई सहज भाव से

और छुआ मुझको धीरे से।

बरस पड़ी जैसे शीतलता

और चाँदनी भीनी­ भीनी

मेरे छोटे से आँगन में ।

मैं मूरख था,

अब तक भटका

बाहर­बाहर ।

झाँक न पाया था भीतर मैं

पावन मन्दिर, तीर्थ जहाँ था

और जहाँ थे ऊँचे पर्वत

शीतल ­शीतल,

और भावना की नदियाँ थीं

कल­कल करती

छल ­छल बहती।

झोंके खुशबू के

भरे हुए थे, बात ­बात में।

जुड़े हुए थे हम सब ऐसे

नाखून जुड़े हो

साथ मांस के

युगों ­युगों से ।