मैं जल हूँ, जन का जीवन हूँ
मैं धरती का जीवन धन हूँ
मुझसे है यह जग हरा-भरा
बनती है सुन्दर वसुन्धरा
खुशहाल धरा का दर्पण हूँ
मैं हरी-भरी अमराई में
मैं खेतों की अंगड़ाई में
मैं बारिश वाला सावन हूँ
मानव तू कितना भोला है
अमृत में विष क्यों घोला है
मैं रोगों का आमंत्रण हूँ
नदियों-नालों को साफ करो
जीवनधारा को मुक्त करो
मैं सूख रहा नीरस धन हूँ
तुम्हें भू की प्यास बुझानी है
मेरी हर बूंद बचानी है
मैं खुद प्राणों का अर्चन हूँ
बारिश का जल भी जमा करो
भूजल को भी न व्यर्थ करो
मैं छुपा हुआ संचित धन हूँ
मुझे सोच-समझकर खर्च करो
जीवन के सारे ताप हरो
मैं ही खुशियों का कारण हूँ
तुम मुझसे हो मैं तुमसे हूँ
तुम मुझसे हो, मैं तुम में हूँ
तुम पूजित हो, मैं पूजन हूँ
मैं जल हूँ जन का जीवन हूँ।