Last modified on 25 जून 2016, at 12:45

मैं देख रहा हूँ... / हुकम ठाकुर

मैं देख रहा हूं
उसकी खाल से कुछ
बिना नाम के चीचड़ चिपके हुऐ हैं
और लगन से उसे चूस रहे हैं
जबकि उसे लग रहा है
वह बुद्ध को आवाज़ दे रहा है

मैं सोच रहा हूं
गायक गाता क्यों है
कवि कविता कहता क्यों है
शिल्पी मूर्ति तराशता क्यों है
जबकि उसका सोचना है
वे नंगी ग़लतियों को कपड़े पहना रहे हैं

मैं सुन रहा हूं
पहाड़ सैर पर निकले हैं
नदियां शीर्षासन कर रही हैं
गाँव अपने चेहरा बदलने में लगे हैं
जबकि ईश्वर नए शोध के लिए
लाईब्रेरी की क़िताबों में व्यस्त है

मैं कह रहा हूं
रिश्तों की चमड़ी झूलने लगी है
दूध का रंग भूरा हो गया है
आदमीयत के नाख़ून बढ़ गए हैं
जबकि उनका कहना है
मैं कुछ कहता क्यों नहीं हूँ

मैं पढ़ रहा हूँ
शब्दों ने अपने अर्थ बदल दिये हैं
क़िताबें हड़ताल पर हैं
क़लम को सिर खुजाने से ही फुर्सत नहीं है
जबकि घर से खेत तक
टेलिफ़ोन की सब लाइनें व्यस्त चल रही हैं

मुझे समझाया जा रहा है
इंन्द्रप्रस्थ में बाज़ार सज गया है
गली-गैल मुनादी कर दी गई
गान्धारी ने आँखों से पट्टी हटा दी है
जबकि विदुर की जीभ में गठिया हो गया है
और धृतराष्ट्र की चौसर की बाज़ी अभी ख़त्म नहीं हुई है