हर बार
जब भी डूबा
नदी नई मिली
गर्म शिलाओं की पीठ पर
लेट कर
दिन गुजर गए।
धोते रहे
इस घाट पर
पुराने दाग
बहा ले गई अपने साथ
नदी सब कुछ
थमा नहीं कभी भी
कुछ भी।
उल्लास का सार
बहते रहने में था।
किनारे वही थे
द्वीप भी
भोगे हुए
वही थे
पर नदी से परिचय
हर बार अलग था।
काटे हुए पल
नई फसल से उगते रहे
कसमसाती देह में
धीमी आँच पर
अटका हुआ
उन्हें पुकारता रहा मन
और
पीढ़ियाँ गज़र गईं।
थमा नहीं कुछ भी
किसी के लिए
रिश्ते अपने किनारों से
लहरों ने
बहते हुए ही निभाए।
तुम्हारी आँखों में कई बार
नदी मिली थी
अनजान
इन पत्थरों पर
बैठ कर
गिनता रहा
लहरों को
उनमें उतरते सितारों को
बीतने की निर्धारित गति की पहचान
और उनका समवेत स्वीकार
मुझ में नदी भरता रहा
इस
नदी हुई देह को
भर रहा हूँ तुममें
गर्म शिलाओं पर लेटी हुई
तुम
नई हो रही हो।
मुझे भर कर
हर बार
तुम भी नदी हो जाती हो।