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मैं ने कहा, पेड़ / अज्ञेय

     मैं ने कहा, ‘‘पेड़, तुम इतने बड़े हो,
     इतने कड़े हो, न जाने कितने सौ बरसों के आँधी-पानी में
     सिर ऊँचा किये अपनी जगह अड़े हो।
     सूरज उगता-डूबता है, चाँद भरता-छीजता है

     ऋतुएँ बदलती हैं, मेघ उमड़ता-पसीजता है;
     और तुम सब सहते हुए
     सन्तुलित शान्त धीर रहते हुए
     विनम्र हरियाली से ढके, पर भीतर ठोठ कठैठे खड़े हो!’’

     काँपा पेड़, मर्मरित पत्तियाँ
     बोलीं मानो, ‘‘नहीं, नहीं, नहीं, झूठा
     श्रेय मुझे मत दो!
     मैं तो बार-बार झुकता, गिरता, उखड़ता

     या कि सूख ठूँठ हो के टूट जाता,
     श्रेय है तो मेरे पैरों-तले इस मिट्टी को
     जिस में न जाने कहाँ मेरी जड़ें खोयी हैं :
     ऊपर उठा हूँ उतना ही आकाश में

     जितना कि मेरी जड़ें नीचे दूर धरती में समायी हैं।
     श्रेय कुछ मेरा नहीं, जो है इस नामहीन मिट्टी का।
     और, हाँ, इन सब उगने-डूबने, भरने-छीजने,
     बदलने, मलने, पसीजने,

     बनने-मिटने वालों का भी :
     शतियों से मैं ने बस एक सीख पायी है :
     जो मरणधर्मा हैं वे ही जीवनदायी हैं।’’

तोक्यो (जापान), 24 दिसम्बर, 1957