अगर मैं भी पंछी होता
दूर देश को उड़ जाता।
इस पेड़ कभी उस पेड़ पर
मीठे- मीठे फल खाता ।।
ऊँचे पर्वत गहरी नदियाँ
रोक नहीं पाते मुझको,
गहरे बन और खेत हरे
सभी बहुत भाते मुझको
बनकर मोर खूब नाचता ।
कोयल बनकर मैं गाता।।
दुनिया बँटी हुई धर्म की,
भाषा की दीवारों
नफ़रत के बाजार सजे है
नफरत के अँधियारो में ।
घर-गली में गाँव - नगर में
भाईचारा फैलाता ॥
अमन-चैन घिरे खतरों में
प्रेम सरोवर सूख गए ।
इंसानों में छुपे जानवर
रूप बदलते नए-नए ।
पीर हरूँ हर प्राणी की
सिर्फ़ यही मन में आता…
-0-(8-6-87,नूतन जैन पत्रिका-मार्च 88, नवभारत 19-2-1995)