आख़िरकार जिस दिन दिल यह मान लेगा
अब दुनिया इंसानों के लिए नहीं
बल्कि बाज़ार में धकेले गए
चंद सिक्कों की तरह रह गई है
समझ लूंगा
अब लौटना संभव नहीं रहा जीवन में
मैं अपने आपको नहीं लूंगा
उन सुनहरे दिनों के लिए
जिनके बदले चुनता रहा शब्दों को
जहां अपनी आज़ादी के लिए
कोयल बुनती रही पेड़ो में, आकाश में
नई संरचनाएं
जहां घाटियां भरी थीं
हरी घासों और जंतुओं से
और मैं उतर आऊंगा पहाड़ पर से
जहां पर बहुत सारी बकरियां थीं
इंसानों के बीच न कोई ख़ुदा था न हत्यारा
सब और आना-जाना था
मौतें भी शिकायत नहीं करेंगी तब
मेरे लिए आज़ादी का मतलब
दिलों का खुलना था
मैंने प्रेम किया था असंभव जगहों में
मंदिरों में तोड़ी गई घंटियों में
जगह ढूंढी सांस लेने की
ये बादल, खनिज, अमरुद के बग़ीचे,
समुद्र, आंसू, छायाओं में नाचती पत्तियां
दूर तलक खोयी सडकें
अगर उदास और खुश नहीं हैं
मुझे माफ़ करना
मैं लौट जाऊंगा गाए बिना