मैं सुहानी शाम का, अभिसार करने चल पड़ा हूँ,
कौन कहता है कि सूरज की तरह निश्चल खड़ा हूँ।
बिछ गयी सुषमा अलौकिक
शांति ने बाँहें पसारी,
मैं मुसाफिर की तरह
मुझको बुलाती जगती सारी
आँखें दुल्हन की तरह सजधज निहारें प्रीत दर्शन,
जानता जितना अधिक मैं मानता अनभिज्ञ बड़ा हूँ।
थक चुकेंगे पाँव फिर भी
ठाँव मिलते ही रहेंगे,
शब्द ही निर्देश देते
गीत बजते ही रहेंगे,
व्यर्थ है कुछ सोचना आगे ही चलकर देखता हूँ,
आते-जाते मौसमों की भांति मैं अनहद लड़ा हूँ।
जब तलक ओझल न हो
ये चाँद चलती नाव तट से
जब तलक न बंद हो
तन-मन की धड़कन हृदय पट से,
फिर भी चलता ही रहूँगा मैं सदा अज्ञात बनकर,
हमको लगता है भला ‘प्रभात’ का रथ एक बढ़ा हूँ।