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मैं हारा हुआ सूफ़ी / शहंशाह आलम

सुना था पहले भी पखावज़

पखावज के भीतर पखावज सुना था


चखा था पहले भी फल

फल के भीतर फल चखा था


महसूसा था उतरती गर्मी को

चढ़ती बारिश को महसूसा था

चैत, वैशाख सबको महसूसा था मैंने


घूमा था अंधेरे में, कोहरे में घूमा था

कोहरे के कोहरे में भी घूमा था सुरक्षित

अकेला नितांत अकेला


अब न शिष्य थे, न शिष्यों के आग्रह

अब बर्बर हँसी थी, चीख़ थी

सरसराहट थी भय की, मृत्यु की

पखावज की आवाज़ में, घने कोहरे में


अब हत्यारे थे विजेता

मैं हारा हुआ सूफ़ी बेचारा


अब उन्हीं के प्रार्थना घर

उन्हीं का मज़हब

उन्हीं के ईश्वरीय संगठन

उन्हीं की लम्बाई-ऊँचाई

उन्हीं की गुनगुनाहट, स्वर उन्हीं के

उन्हीं के हिज्जे, उन्ही के वाक्य


भाषा उन्हीं की

जून, जुलाई, आषाढ़, भादो

धरती, आकाश सब उन्हीं के


मैं बस हारा हुआ सूफ़ी बेचारा

इस समकालीन समय में