मुझे तुम न मानो बेटी
न दो मुझे माँ-सा सम्मान
बहन बने मुझे अर्सा हो गया
पत्नी का श्री स्थान
नही है विद्यमान अब कहीं भी
यह परिवर्तन प्रकृति में नही...
बहन,पत्नी, बेटी या माँ में नही
तुम में आया है
मैं तो आज भी
उसी स्थान पर खड़ी हूँ
जहाँ सृजित किया था मैंने प्रथम बार
सृष्टि में व्याप्त ज़र्रे-ज़र्रे को
तुमने छीनी है मेरी अस्मिता
उतार लिया है शरीर से माँस-मज्जा तक
बना दिया है हड्डियों से निर्मित एक कंकाल
मैं हूँ तुम्हारी सृष्टा
तुम्हारी संरचना के बीज रोपित करती हूँ मैं
मुझे शक्तिहीन न समझो
संरचना के बीजों को कर सकती हूँ विनश्ट
समुच्चय हूँ... समग्र हूँ... ...
मात्र देह नही हूँ मैं।