मैं हूँ खड़ा देखता वह जो सारस-गति में चली जा रही, मौन रात्रि में, नीरव गति से दीपों की माला के आगे। क्षण-भर बुझे दीप, फिर मानो पागल से हो जागे! मुलतान जेल, 18 अक्टूबर, 1933