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मैदान में जीवन / संजीव कुमार

लंबे चौड़े मैदानों में
पकड़ने के लिए
मछलियाँ नहीं हैं,
गहराईयाँ भी नहीं हैं
खो जाने के लिए,
घुमावदार सड़कें भी नहीं
मन मोहने के लिए।

लंबे चौड़े मैदानों में
दुख हैं लंबे चौड़े
थोड़े से ही हैं सुख छिछोरे,
झपट लिये गये मजे हैं
कपट भरी दौड़ धूप है
हरे भरे बाजार हैं
सूखी सड़कों के किनारे किनारे।

लंबे चौड़े मैदानों में
उगती भोर है खुली खुली,
बिखरती दोपहर धुली धुली
डूबती शाम है गमगीन सी
लुढ़कती रात है नमकीन सी।