मैना।
पाखी लोक की परी,
रोज़ आती है,
मेरे आँगन
छाँव-कुठाँव से
दाना चुगने ।
उसकी मनस्विता की छटा से
मेरा मन थिरकने लगता है
और
बुनने लगता है —
प्रीतिकर संभावना
तभी तो मैं जोहती हूँ बाट,
उसकी, दमकती मुद्रा की ।
जब वह उड़ती है फुर्र से
अपना गत्वाजोन दिखाकर
तब
मैं भी रचने लगती हूँ,
रस निष्पत्ति के सारे अलंकार ।