चला जा रहा था मैं
मन ने तभी सुझाया :
जिस बालू पर पग धरते
तुम चले जा रहे-यही रेत है काल।
(कहना था क्या उसे यही! मैं छोड़ रहा हूँ छाप काल पर?)
तभी हवा का झोंका आया
सारे पग-चिह्नों को मिटा गया।
मैं ने जाना यही हवा है काल :
समय की लिखत अहं की छाप
मिटाती जाती है...
कितनों-कितनों के
कितने पग-चिह्न
रेत में मिले हुए हैं
कितने अहं : और आने वालो के पग-तल
क्या उन को छूते हैं?
उठते हैं तिलमिला लड़खड़ाते हैं?
एक-एक क्षण में शत-शत युग :
और सहस्रों युग का सूखा जंगल
यह मरु : और उसे
सहलाती-सी ही
हवा काल की
कितने इतिहास मिटा जाती है!
मन, मरु हो गया पार!
हवा री, पाटी की यह लिखत मिटा दे।
भीमताल-काठगोदाम (गौला नदी पर), 18 फ़रवरी, 1980