मैया री मोहि दाऊ टेरत ।
मोकौं बन-फल तोरि देत हैं, आपुन गैयनि घेरत ॥
और ग्वाल सँग कबहुँ न जैहौं, वै सब मोहि खिझावत ।
मैं अपने दाऊ सँग जैहौं, बन देखैं सुख पावत ।
आगें दै पुनि ल्यावत घर कौं, तू मोहि जान न देति ।
सूर स्याम जसुमति मैया सौं हा-हा करि कहै केति ॥
भावार्थ :-- (श्यामसुन्दर कहते हैं-) ` अरी मैया! मुझे दाऊ दादा पुकार रहे ।
मुझे वे वन के फल तोड़-तोड़ कर दिया करते हैं और स्वयं गायें हाँकते-घेरते हैं । मैं दूसरे गोपकुमारों के साथ कभी नहीं जाऊँगा, वे सब मुझे चिढ़ाते हैं । मैं अपने दाऊ दादा के साथ जाऊँगा, वन देखने से मुझे आनन्द मिलता है । फिर वे मुझे आगे करके ले आते हैं । परंतु तू जो मुझे जाने नहीं देती ।' सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर मैया यशोदा से कितनी ही अनुनय करके कह रहे हैं ।