एक सन्नाटा सा तारी है
रह-रह कर इक चीख़ उभरती है
मेरी ही नज़्मों का अट्टाहस है मेरे कानों में
ये कौन ख़रीद लाया है घुँघरू मेरे लिए
अय औरत!
तू सिर्फ़ जिस्म की भूख के सिवाय कुछ नहीं
या तो तू उतार दे देह से अपने कपड़े
या सी ले लबों में अपनी मुहब्बत
आज़ फ़िर रात रोई है
सुब्ह के गले लगकर
कहीं कोई इक पाक सा लफ़्ज़
ज़िब्ह हुआ है
आज मुहब्बत की चनाब
मैली हुई है