कालिदास के यक्ष ने
भेजा था संदेसा
अपनी यक्षिणी को
बादलों के पन्नों पर
किए थे हस्ताक्षर
अपनी विरहाकुल आँखों से।
अब क्यों नहीं ले जाते संदेसा
आते-जाते बादल
मन की तरह उमड़-घुमड़
आस-पास ही बरस
फ़र्ज़ पूरा हुआ सोच
उड़ जाते हैं कहीं और।
आज
कौन ढोता है जल-भार
औरों को शीतल करने के लिए।