मोपै गिरिधर! कृपा करौ।
मोह-कूप में परयौ दुखी अति, प्रभु! संताप हरौ
मन अति मलिन, बुद्धि नित बिचलित, रति अघ औगुन भारी।
इंद्रिय सकल सदा कुबिषय-रत, तज मरजादा सारी
छलन चहौं अंतरजामी कौं, दुरित दुरंत दुराऊँ।
कपट साधु बन, रचि प्रपंच, निज धवल चरित्र दिखाऊँ॥
मन अति जरत काम-कोपानल, नहीं सांति छिन पाऊं।
बाहर ते अति सांत बन्यौ, समता कौ स्वाँग रचाऊँ॥
ममता-मोह तुच्छ जग-बस्तुनि, चिा उनहिं में अट?यौ।
कबउ न पलभर लगत राम में, फिरत भूत ज्यौं भट?यौ॥
मेरे अमित दोष-दुख भीषन रोम-रोम प्रति छाये।
मिटैं नहीं तुहरी करुना बिनु काहूकेउ मिटाये॥